लेखक- अहमद अली।
हाई वोल्टेज ड्रामा चल रहा है आज कल युपी के चुनावी माहौल में । और वो है, दलितों के घर जाकर पत्तल में भोजन करना।कोई बात नहीं, खाईये।लेकिन लगे हाथ एक प्रश्न का उत्तर भी देते जाइये, चुनावी दलित उद्धारक नेता जी ।क्या चुनाव के समय ही, दलित का घर भोजन करने के लायक होता है ? इसके पहले भी चुनाव के वक्त ऐसी खवा खवाई देखी गयी है।खास करके भा ज पा की ओर से तो डंका पीट पीट कर, जनता को यह जानकारी दी जाती है कि देख लो मैं दलित के दरवाज़े पर खा रहा हूँ।मैं चूंकि खा रहा हूँ अतः मुझे कतई दलित विरोधी मत समझना।फलतः मैं तुम्हारे वोट का भी हकदार हूँ। टी वी वाले तो ऐसे प्रचार करते हैं, मानों पाँच साल तक एक मसीहा दलित बस्ती खोजता रहा हो। ये चुनावी दलित उद्धारक उनके यहाँ भोजन कर दर असल दलितों का माखौल ही उडा़ रहे होते हैं। मनोवैज्ञानिक रुप से वो यह बताना चाहते हैं कि तुम तो अछूत और घृणा के पात्र हो ही , इससे मुझे इन्कार नहीं है।मैं तुम्हारे यहाँ भोजन कर के यह प्रमाण देना चाहता हूँ कि मैं नहीं मानता।काश ये लोग छुआ छूत के विरुद्ध कोई सामाजिक अभियान चलाये होते या दलित उत्पीड़न के खिलाफ मुखर हुए होते। आंकडे़ उठा कर देख लिजिये, दलित विरोधी हरकत, उन पर जुल्म या दलित उत्पीड़कों के बचाव में उसी जमात के होते हैं, जिस जमात के लोगा आज जूठन गिराने पहुंच रहे हैं। क्या ये उसी जमात या मानसिकता वाले नहीं हैं ? जिस जमात के लोग बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर की मुर्तियाँ तोड़ते हैं, पेरियार पर अपशब्दों का बौछार करते हैं एवं उनके कथनों को मिटाने हेतु कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाते नज़र आते हैं,रविदास के प्रति जिनका हृदय घृणा से लबा लब है।हाथरस की दलित बेटी के साथ योगी सरकार ने क्या किया , किसी से छुपा है क्या ? रोहित बेमुला की मौत का जिम्मेवार क्या यही लोग नहीं थे ? उनका भोजन करने जाना , मेरी समझ से बेशर्मी का पराकाष्ठा है।एक तरफ आरक्षण को, जिसको संविधान में शामिल कराने के लिये डा० अम्बेडकर को न जाने क्या क्या पापड़ बेलने पडे़ थे, खत्म करने पर तुले हुए हैं।दूसरी तरफ ये भोजन की राजनीति ! शर्म उनको मगर नहीं आती।


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