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अंबेडकर और सार्त्र बनाम मार्क्सवाद!

लेखक: अजय कुमार सिंह
14 अप्रैल के अंबेडकर के विचारों और योगदान की चर्चा करते हुए हमारे लेख पर कई साथियों ने तीखी टिप्पणी की है। उनका इस बात से ऐतराज है कि मैंने अपने लेख में अंबेडकर को मार्क्सवादी या समाजवाद की धारा में स्वीकार न करते हुए पूंजीवादी लोकतंत्र के समर्थक के रूप में देखा है । मेरी आलोचना करते हुए एक साथी ने उनके जीवनकाल के अंतिम समय के कुछ लेखों और भाषणों को पढ़ने की सलाह दी, जिन लेखों और भाषणों में अंबेडकर समाजवाद के पक्ष में बोलते नजर आ रहे हैं। अंबेडकर का पूंजीवाद से मोह भंग होना और समाजवाद की तरफ आशा भरी नजर से देखने मात्र से ही वे वैज्ञानिक समाजवादी या मार्क्सवादी चिंतक नहीं माने जा सकते हैं। जनवादी अधिकार तथा पूंजीवादी लोकतंत्र के जनवादी पहलुओं के लिए संघर्ष करते हुए अंबेडकर का जो ऐतिहासिक योगदान है , उसे प्रमुखता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यदि कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने उनके इस योगदान को स्वीकार करने में कहीं कोताही बरती है , तो उसकी निर्मम आलोचना की जानी चाहिए , लेकिन अतीत में उनके जनवादी योगदान को नजरअंदाज करने की भरपाई उन्हें मार्क्सवादी चिंतक साबित करके नहीं किया जा सकता है ।
मार्क्सवाद कोई भाववादी – समन्वयवादी विचारधारा नहीं है जिसे ‘जय भीम लाल सलाम ‘ की अवधारणा के रूप में पेश किया जाए। जाति उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष संपूर्णता में वर्ग संघर्ष का हिस्सा है। अपने समय में कम्युनिस्टों ने जातीय उत्पीड़न के खिलाफ क्रांतिकारी स्तर पर आंदोलनों को चलाया है। जो लोग भी तेलंगना तथा नक्सलवाड़ी किसान आंदोलन की गहरी छानबीन करेंगे, देखेंगे कि कम्युनिस्ट आंदोलन ने जातीय उत्पीड़न पर अंबेडकर से कहीं ज्यादा तीव्रता के साथ प्रहार किया है। फिर भी जातीय उत्पीड़न के खिलाफ अंबेडकर के योगदान को इतिहास में पहली पंक्ति में स्थान दिया जाता है और दिया जाना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतने मात्र से कोई समाजवाद की लड़ाई का वाहक नहीं हो सकता है। उन्होंने राजकीय समाजवाद यानी स्टेट कैपिटलिज्म की वकालत की थी जिसमें कि राज्य के द्वारा ज्यादा से ज्यादा उत्पादन व्यवस्था का संचालन किया जाए। यही काम अपने कार्यकाल में नेहरू और ईंदिरा गांधी ने किया , लेकिन राजकीय पूंजीवाद और वैज्ञानिक समाजवाद दोनों एक ही चीज नहीं है। राजकीय पूंजीवाद का विकास पूरी दुनिया में पूंजीवाद के विकास को केंद्र में रखकर सभी पूंजीवादी सरकारें करती रही हैं । समाजवाद की जो अवधारणा अंबेडकर की थी उसके आधार पर भी उन्हें समाजवादी चिंतक के रूप में पेश नहीं किया जा सकता है ।
इतिहास में एक और बड़े चिंतक फ्रांस के ज्यां पाल सार्त्र हुए हैं जिन्होंने साम्राज्यवाद और पूंजीवादी शोषण के खिलाफ यूरोप की निराश और फासीवादी हमले झेलते समाज को ‘अस्तित्ववाद ‘ की अवधारणा के साथ संघर्ष करने के लिए रास्ता दिया। जयपाल सार्त्र अपने पूरे लेखन और व्यवहारिक संघर्षों में साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद से समझौताविहीन संघर्ष किया और अपने जीवन के अनुभव के आधार पर अपने जीवन के अंतिम दिनों में मार्क्सवाद के कायल हो गए। अपने समय के सबसे प्रखर मार्क्सवादी चिंतक माओ से उन्होंने मुलाकात भी की और अपनी ही अवधारणा को छोड़ते हुए मार्क्सवाद के पक्ष में अपनी राय भी रखी। उनके द्वारा मार्क्सवाद के पक्ष में खड़ा होना यूरोप तथा पूरी दुनिया में मार्क्सवाद को और अधिक स्वीकारोक्ति प्रदान किया , लेकिन इतने भर से सार्त्र को मार्क्सवादी चिंतक नहीं कहा जा सकता है , क्योंकि उनकी पूरी रचना प्रक्रिया ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ अस्तित्ववादी दर्शन के दायरे में ही संघर्ष के रास्ते तथा मापदंड तय किए। उनके मार्क्सवादी चिंतक ना होने से साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद के खिलाफ उनके किए गए संघर्ष का महत्व कम नहीं जाता है। सार्त्र के समर्थकों तथा अपने पूर्व के विचारों से अपने को अलग करने के बावजूद सार्त्र के समर्थकों और फॉलोवरो ने सार्त्रवाद को स्थापित करने का झंडा उठाए रखा। यह इतिहास का विचित्र अंतर्विरोध हमारे सामने आता है कि सार्त्र खुद सार्त्रवादियों के खिलाफ खड़े थे।
हमारे लिए अंबेडकर जनवादी मूल्यों तथा जातीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा हैं। भारत के तमाम उत्पीड़ित समाज की वे आवाज थे , लेकिन इससे मुक्ति के स्पष्ट रास्ते को रेखांकित करने में , यानी कि उत्पादन के साधनों पर शोषित तथा उत्पीड़ित मेहनतकश समाज के नियंत्रण की स्पष्ट अवधारणा को रखने में अंबेडकर पिछड़ गए। पश्चिम के विश्वविद्यालयों में पढ़ते हुए पूंजीवादी लोकतंत्र के प्रति जो विशेषआकर्षण और उम्मीद थी वह उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद तथा मार्क्सवाद की तरफ जाने से रोकता था। उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति के समानता स्वतंत्रता और भातृत्व वाले नारे को स्थापित किया , लेकिन रूसी क्रांति के निजी संपत्ति के खत्म कर सभी उत्पादन के साधनों के सामाजिकरण वाली अवधारणा तथा व्यवहार को उन्होंने लगातार नजरअंदाज किया। कई बार तो उसके बारे में बहुत ही नकारात्मक टिप्पणी भी की। अंबेडकर बहुत बड़े विद्वान थे । दुनिया भर के साहित्य और विचारधारा का अध्ययन किया था । बहुत सारी उनकी डिग्रियां थी , लेकिन सामाजिक संघर्षों में लगे संगठनों और कार्यकर्ताओं के लिए तो महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस अध्ययन के बाद इतिहास और समाज को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष का उन्होंने कौन सा रास्ता दिया। अंबेडकर के सारे रास्ते पूंजीवादी लोकतंत्र के दायरे में ही सीमित हैं , इसलिए उससे वर्तमान साम्राज्यवादी – पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का रास्ता हम नहीं खोज सकते हैं। हां , उन्होंने पूंजीवादी लोकतंत्र से निराश होकर जो समाजवाद के पक्ष में आशा भरी नजरों से देखने की कोशिश की है उसका स्वागत है। तमाम लोग जो अंबेडकर से प्यार करते हैं , जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष के लिए कटिबद्ध हैं, उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद के लिए , उत्पादन के तमाम साधनों के सामाजिकरण कर निजी संपत्ति के खात्मा के लिए जो अब तक के सबसे उन्नत विचारधारा और व्यवहारिक अनुभव हमारे पास है , उसे आत्मसात करना चाहिए । अंबेडकर और सार्त्र की रचनाएं मार्क्सवादी दर्शन तथा राजनीतिक अर्थशास्त्र का हिस्सा न होते हुए भी मानव समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करने वाले व्यापक समाज के लिए ऊर्जा का स्रोत है।
टॉल्सटाय मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन रूसी क्रांति में उनके योगदान को सभी मार्क्सवादी स्वीकार करते हैं। लेनिन ने अपनी रचना ‘रूसी क्रांति के दर्पण : टॉलस्टॉय ‘ में इस योगदान को शानदार तरीके से पेश किया है। हमारे लिए भी अंबेडकर व उनकी रचनाएं भारतीय क्रांति के दर्पण के रूप में हमारे सामने खड़े हैं , जिनकी रचनाओं से गुजर कर हम भारतीय समाज के अंतर्विरोधों को, उसके विभत्स स्वरूप को, उत्पीड़ित समाज की आशाएं और आकांक्षाएं को देख सकते हैं। हम इससे गुजरकर अपनी चुनौतियों तथा कार्यभार तय करने के लिए उसमें बहुत कुछ देख सकते हैं , उसमें तलाश सकते हैं ।

(लेखक के अपने विचार हैं)

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