✍️लेखक:- अजय कुमार सिंह
बुद्ध का रास्ता तो मार्क्सवाद लेनिनवाद से होकर जाता है, ‘उसने मेरा अपमान किया, मुझे कष्ट दिया, मुझे लूट लिया’ — जो व्यक्ति जीवन भर इन्हीं बातों को लेकर शिकायत करते रहते हैं , वे कभी चैन से नहीं रह पाते। सुकून से वही व्यक्ति रहते हैं , जो खुद को इन बातों से ऊपर उठा लेते हैं।”
. — गौतम बुद्ध
बुद्ध के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है . बाबा साहेब अंबेडकर ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के युग में भी बुद्ध की शिक्षाओं को, उत्पीड़ित समाज की मुक्ति के रास्ता के रूप में बताया.
बुद्ध व्यक्ति, समूह तथा समाज को अस्मिता व मान सम्मान की समस्या को छोटे घेरे से बाहर निकलकर संपूर्ण मानव समाज तथा व्यवस्था में देखने के लिए कहते हैं. पूरी दुनिया में चाहे वह सामाजिक संघर्ष हो या अर्थव्यवस्था को संचालित करने तथा मानव समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन व्यवस्था के विकास का मामला हो, पूरी दुनिया में स्वार्थी, आत्म केंद्रित लोग तथा वर्ग माइक्रो लेवल पर चीजों को देखता है और उसी में समाधान खोजता है, जबकि व्यापक मानव समाज के बारे में सोचने वाले लोग व वर्ग सामाजिक समस्या हो या आर्थिक संकट इसका हल मैक्रो लेवल पर खोजते हैं. आज पूरी दुनिया में नव उदारवादी आर्थिक नीति लागू की जा रही है और इसके तहत पूंजीपतियों के मुनाफा को बनाए रखने के लिए बड़ी ही संकीर्ण नजरिये से मजदूरों के काम के घंटे पढ़ाए जा रहे हैं, मजदूरी में कटौती की जा रही है, समाज के ऊपर खर्च किए जा रहे सरकारी खर्चों में बेतहाशा कमी की जा रही है. यह सब माइक्रो लेवल पर चीजों को तय करने का परिणाम है जो पूंजीवाद को सबसे प्यारा है. और ठीक इसी दृष्टिकोण का बुद्ध यहां विरोध करते हैं.इसी मामले में बुद्ध और मार्क्स एक दिशा में समस्याओं की खोज के लिए आगे बढ़ते हैं. तो फिर यह कैसे हुआ कि बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा रखने वाले बाबासाहेब आंबेडकर मार्क्स के द्वारा बताए दुनिया की मुक्ति के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाए? यानी संपूर्ण आर्थिक सामाजिक व्यवस्था पर मेहनतकशों के नियंत्रण तथा निजी संपत्ति को समाप्त करने की दिशा को न अपनाकर पूंजीवादी लोकतंत्र तथा आर्थिक व्यवस्था को उनहोंने क्यों अपनाया जो निजी संपत्ति बढ़ाने और मनुष्य के निर्मम शोषण को संवैधानिक मान्यता देता है? बाबासाहेब आंबेडकर ने कैसे उन संविधान की धाराओं को स्वीकार किया जो पूंजीवादी शोषण को सुरक्षित करने के लिए बनाए गए थे, कैसे पूंजीवादी लोकतंत्र को महिमामंडित करते हुए अमेरिका तथा पश्चिम के पूंजीवाद से उम्मीद लगा बैठे, कैसे वर्ग संघर्ष की जगह पर अस्मिता तथा मान- सम्मान की छोटी सीमा की लड़ाई में सिमट कर रह गए ? बुद्ध का रास्ता तो मार्क्स से होते हुए आगे जाता दिख रहा है जिसे उनके समकालीन लेनिन तथा स्टालिन ने व्यवहार में लागू करके भी दिखाया? इस रास्ते को अंबेडकर और दूसरे सुधारवादी नेता क्यों नहीं देख पाए, क्यों आज के पोस्टमार्डिज्म को महिमामंडित करने वाले प्रोफ़ेसर और बुद्धिजीवी अस्मिता के सिद्धांत को हवा दे देकर वर्ग संघर्ष को कमजोर करने की मुहिम चला रहे हैं? और अंत में ऐसा कैसे हुआ कि आज पूरे देश में मजदूर वर्ग सड़कों पर संघर्ष कर रहा है, लांग मार्च कर रहा है तो उसे संगठित करने वाला, उसके पक्ष में मजबूती से खड़ा होने वाली कोई राजनीतिक पार्टी, नेता और इसका विश्लेषण करने वाला दलित अस्मिता का विचारक सामने नहीं आ रहे हैं? जबकि मार्च करने वाले और पुलिस की लाठियां खा रहे 90% ऐसे मजदूर दलित तथा पिछड़ी जाति समूह से ही आते हैं? क्यों नहीं दलित व पिछड़ी अस्मिता के झाडावरदार पूंजी तथा पूंजीपतियों के रक्षक सरकारों के मिले जुले इस हमले के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष का नेतृत्व करते हैं?
(लेखक के अपने विचार हैं)


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