राष्ट्रनायक न्यूज।
छपरा (सारण)। क्या आपने निकाह फिल्म का वो नग़मा सुना है ? जी हाँ वही, चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है। मुझको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है। ग़ज़ल लम्बी है, जिसके चन्द अशआर ही निकाह फिल्म में लिये गये हैं। गुलाम अली ने बडे़ ही दिलकश अंदाज में पूरी गज़ल गाई है।कौन है इस ग़ज़ल का रचईता ? महान स्वतन्त्रता सेनानी, मौलाना हसरत मुहानी। जिनकी स्मृति दिवस 13 मई है।उनका असल नाम था ,सय्यद फ़ज़ल-उल हसन और तखल्लुस “हसरत”।उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला में अवस्थित मोहान गाँव में 14 अक्तूबर 1878 को पैदा हुए।अतः वो हसरत मोहानी से चर्चित हैं।मोहानी न केवल एक रुमानी शायर थे बल्कि एक पत्रकार एवं सामाजिक- राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनका उल्लेखनीय योगदान था। पढा़ई समाप्त कर 1904 में जंगे आजादी में कूद परे। शुरुआती दौर में वो बाल गंगाधर तिलक से कफी प्रभावित थे तथा उनके द्वारा संचालित स्वदेशी आन्दोलन के एक हिस्सा बने।पत्रकारिता भी उनकी सक्रियता की एक अहम हिस्सा रहा है, जिसके चलते उन्हें कई बार जेल भी जाना पडा़ था।घटना 1907 की है, जब उन्होंने एक पत्रिका में “मिस्त्र में ब्रितानियों की पालिसी” उनवान से एक लेख लिखा।लेख प्रकाशित होते ही अँग्रेजी सरकार उनकी तलाश करने लगी।अन्ततःउन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया तथा संगीन यातनाएँ भी दी गयी।संगीन से संगीनतर यातनाएँ भी उन्हें तोड़ने में नाकामयाब साबित हुई।
सबसे पहले पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव काँग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन 1921 में रखने वाले हसरत मोहानी ही थे, जिसका समर्थन अहमद अजा़जी ने किया था हालाँकि प्रस्ताव पास न हो सका।गाँधी जी को जल्दबाजी वाला कदम लगा था उस समय।लेकिन ठीक आठ साल बाद लाहौर में आखिर कार पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास हुआ। इसके अलावा 1919 में खिलाफत आन्दोलन में वो एक बडी़ भुमिका के साथ शरीक थे। दाढी़ और टोपीधारी हसरत मुहानी श्री कृष्ण के बहुत बडे़ भक्त थे। उन्होंने कई बार हज किया था।हज से लौटने के बाद वो मथुरा अवश्य जाया करते थे।कहते भी थे, बिना मथुरा गये मेरा हज मुकम्मल नहीं होता है।सितंबर 1923 में जब जन्माष्टमी के अवसर पर किसी कारणवश हसरत मोहानी मथुरा नहीं जा सके तो उन्हें दिली तकलीफ पहुँची थी। उन्होंने श्री कृष्ण से आरजू करते हुए जो शेर लिखा वो उनकी भक्ति समझने के लिये काफी है। ‘हसरत’की भी कुबूल हो मथुरा में हाज़िरी सुनते हैं, आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज फिर आगे कहते हैः-
मन तोसे प्रीत लगाई कन्हाई
काहू और की सूरती अब काहे को आई
तन मन धन सब वार के ‘हसरत’
मथुरा नगर चली धूनी रमाई
गोपियों की पीडा़ को उन्होंने यूँ बयान कियाः-
बिरह की रैन कटे न पहार, सूनी नगरिया परी उजार
निर्दयी श्याम परदेस सिधारे, हम दुखियारन छोरछार
काहे न ‘हसरत’ सब सुख सम्पत, तज बैठन घर मार किवार
कहने की आवश्यकता नहीं , हसरत मुहानी कौमी एकता और राष्ट्रीय अखण्डता के बहुत बडे़ पैरोकार थे। उन्होंने देश के विभाजन का मुखर विरोध किया थ। विभाजन के बाद भारत में हीं उन्होंने अन्तिम साँस ली। उन्हें भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली संविधान सभा का सदस्य बनाया गया। लेकिन यह बात कम लोग ही जानते होगें कि मासौदा तैयारी के पश्चात उन्होनें उस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था, यह कहते हुए कि यह मसौदा किसान मजदूरों के प्रति बे रहम है तथा पूँजीवाद का पोषक है।
उनके बडे़ प्रशंसको में गणेश शंकर विद्यार्थी भी थे, जिन्होंने 1924 में जब हसरत मोहानी तीसरी बार जेल में ढाई साल बिताने के बाद रिहा हुए, तो‘प्रताप’में लिखा, ‘हसरत मोहानी देश की उन पाक-हस्तियों में से एक हैं जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए, क़ौमियत के भाव की तरक़्क़ी के लिए, अत्याचारों को मिटा देने के लिए, हर प्रकार से अन्यायों का विरोध करने के लिए, जन्म-भर कठिनाइयों और विपत्तियों के साथ घोर से घोरतम संग्राम किया। ’18 अगस्त 1924 को प्रकाशित इस मर्मस्पर्शी टिप्पणी में विद्यार्थीजी ने आगे लिखा ‘इस कठिन समय में जब हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन नापने में अपना बल और पुरुषार्थ दिखा रहे हैं, मौलाना का हमारे बीच में आ जाना, बहुत ही महत्वपूर्ण है।गाँधी जी भी उन्हे बहुत सम्मान देते थे। 1936 में मुंशी प्रेमचन्द की अध्यक्षता में जब प्रगतिशील लेखक संघ का गठान हुआ, उस मौके पर भी मोहानी उपस्थित थे तथा कौमी एकता एवं साहित्यकारों, कवियों और लेखकों की जंगे आजादी के प्रति क्या जिम्मेवारी हो, उस पर एक लम्बी तकरीर भी दी थी, जो आज भी प्रेरणादायी है।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के बहुत अच्छे दोस्त थे मुहानी साहब। वो प्रायः उनके यहाँ ठहरते थे।एक साथ भोजन के साथ ही रमजान के मुबारक महीना में इफ्तार में उनके यहाँ मेहमान नवाजी भी होती थी।1917 में जब लेनिन के नेतृत्व में रुसी क्रांति सफल हुई, तो भारत के बुद्धिजीवी बडी़ संख्या में उससे प्रभावित हुए थे। हसरत मोहानी भी उन में से एक थे। कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में उनकी सक्रिय भूमिका थी।वो कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। 1925 में कानपुर में प्रथम पार्टी काँग्रेस की तैयारी समिति के वो अध्यक्ष भी थे।तैयारी समिति का कार्यालय भी उन्ही के घर पर था। कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए उनका मुस्लिम तत्ववादियों से हमेशा बौद्धिक संघर्ष हुआ करता था।खास कर धर्म के मुद्दों पर, जब वो कम्युनिस्टों के खिलाफ बोलते थे तो तीखी बहस भी हो जाया करती थी। 13 मई 1951 को मौलाना साहब अचानक इस दुनिया को अलविदा कह गये।दुखद यह है, कि इतनी बडी़ शख्सियत को इतिहास में जितनी अहमियत मिलनी चाहिये, उसमें कहीं न कहीं कोताही बरती गयी है। मौजुदा समय में तो उनकी यादों की मकबुलियत और अधिक हो गयी है, जब कौमी मिल्लत पर चौतरफा हमला जारी है। कम से कम लेखकों और कवियों के लिये तो मौलाना एक विरासत हैं। जो मौलाना भी थे और कृष्ण भक्त भी। कभी कभी ही पैदा होते हैं,” हसरत मुहानी “।
लेखक:- अहमद अली
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