लेखक: अजय कुमार सिंह
(आज एक दोस्त से फोन पर बात हो रहा था I वह बोला,”कम से कम आज ‘वैलेंटाइन डे’ के दिन तो इंक़लाब की जगह कुछ प्रेम-प्यार की बातें करो !” मैंने कहा कि प्यार-मुहब्बत के लिए कोई एक दिन मुक़र्रर करना प्यार का अवमूल्यन है ! दरअसल यह काम बाज़ार करता है और इसे वे लोग खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं, जिनकी ज़िंदगी से सारा प्यार रिस चुका है और जो सिर्फ़ सिक्के और माल (कमोडिटी) को प्यार करते है, यानी ‘कमोडिटी फेटिशिज्म’ के शिकार हैं !
जो एकदम बर्बर और अंधकारमय समय में भी दुनिया बदलने का सपना देखते हैं, वे दुनिया के सबसे बड़े प्रेमी होते हैं ! वे सपनों से, भविष्य से, बच्चों से, अपने सहयात्रियों-साथियों से, प्रकृति से और समस्त मानवीय सार-तत्व से प्यार करते हैं ! इसीलिये वे हारकर भी फिर से उठ खड़े होते हैं क्योंकि वे अपने प्यार का अपमान नहीं कर सकते ! जाहिर है कि ऐसे लोगों के दिलों के दरवाजों पर उस एकान्तिक रोमानी प्यार की दस्तकें भी कभी न कभी, या एकाधिक बार, पड़ती ही हैं ! कभी वे लोग अन्दर चल रही किसी बहस के शोर में उन दस्तकों को सुन नहीं पाते, कभी ऐसी किसी आवाज़ को सुनने लायक मौसम ही नहीं होता, और कभी दरवाज़ा खुलने में देर होने के कारण आगंतुक जा चुका होता है I ऐसे जीवन में कुछ लोगों को प्यार का लंबा या छोटा अनुभव मिलता है, कुछ अपने स्वप्नों और आदर्शों के साथ इस कामना और टीस को आजीवन लिए हुए अपने मिशन में लगे रहते हैं ! जाहिर है कि मैं यहाँ स्खलित-स्वप्न, मार्ग-भ्रष्ट, पराजितमना, छद्म-क्रांतिकारियों और “सद्गृहस्थों” की बात नहीं कर रहा हूँ। बहरहाल, जब यह बात चल ही पड़ी तो मैंने भी सोचा कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान की अपनी कुछ प्रेम-विषयक कवितायें एक साथ यहाँ प्रस्तुत करूँ आप सबके आस्वादन के लिए !)
**
(1)
बर्बर समय में सीखना प्यार करना
(मैं भी चाहता था
प्यार करने की कूव्वत हासिल करना !
और हम सभी जानते हैं कि
ऐसा कैसे होता है !
आहिस्ता-आहिस्ता) !
मैं भी चाहता था
प्यार करने की कूव्वत हासिल करना
एक बर्बर हत्यारे समय में जीते हुए ,
पकते और सीझते हुए,
कुछ सपने और मंसूबे बुनते और गुनते हुए !
पहले मैंने छोटे सपने देखे,
छोटी-छोटी यात्राएँ कीं
और मुझपर कायरता, स्वार्थ और लिसलिसेपन में लिथड़े
पटवारियों-मुनीमों जैसी शक्लों और दिलों वाले लोगों के
प्रेम-संदेशों की बारिश सी होने लगी।
फिर मैं एक लम्बी यात्रा पर निकल पड़ा
और नदियों-सागरों-पहाड़ों-घाटियों
रेगिस्तानों और हरियाले मैदानों में भटकने लगा
वहाँ मैंने देखा कि जीवन पर क्या बीत रहा है।
और एक लम्बे समय तक प्यार को भूल
लड़ने की कूव्वत हासिल करता रहा।
लड़ना ही जब जीवन हो गया
तो मैंने फिर सोचा इसी जीवन में प्यार करना
सीखने के बारे में I
पूछा मैंने पानी से, मिट्टी से, पेड़ों से, परिंदों से,
नींद से, स्मृतियों से, पूर्वज कवियों से, यायावर गायकों से
और युद्ध भरे दिनों के संगी-साथियों से
प्यार करने की कूव्वत और हुनर के बारे में
और जो कुछ भी जान पाया
उसे सहेजने और बरतने के लिए
दूर दहकते ढाक के जंगलों के भीतर गया,
खदानों और कारखानों तक गयी
जगह जगह भटकता रहा
और प्यार की यह शर्त हासिल करता रहा कि
अनथक अहर्निश हर उस चीज़ से नफ़रत करता रहूँ
जो मनुष्यता के ख़िलाफ़ खड़ी है !
यूँ हृदयहीन कापुरुषों-महापुरुषों से दूर होकर,
जड़ता, विस्मृति, समर्पण और सहनशीलता के विरुद्ध
जूझते हुए अविराम
प्यार को जाना-समझा आहिस्ता-आहिस्ता
विश्वासघातों और फरेबों की मारक चोटें झेलकर
चुपचाप अपनी ही गलतियों और आधे-अधूरे और
अव्यक्त प्रेमों की अकथ पीड़ा झेलते हुए,
सुलगते हुए धीरज के साथ !
(2)
इक्कीसवीं सदी के उजाड़ में प्यार
बात वर्षों पुरानी है !
जो मुझे बहुत चाहने लगी थी
उसने भी तंग आकर घोषित कर दिया एक दिन कि
आने वाले दिनों की एक
अंधी प्रतीक्षा हूँ मैं।
और यह उससे भी बहुत-बहुत पहले की बात है।
जब मेरी आत्मा के पंख उगने लगे थे
तो मैंने किसी धूमकेतु से
प्यार करना चाहा था
पर मुझसे प्यार करना चाहता था
क़स्बे का घंटाघर
या कोई शाही फरमान
या कोई सजावटी साइन बोर्ड
या पंक्चर लगाने की दूकान के बाहर पड़ा
कोई उदास, परित्यक्त टायर।
जिन दिनों तमाम क़रार ढह रहे थे,
वायदे टूट रहे थे
और धीरज के साथ सपने कूटकर
सड़कें बनाई जा रही थीं,
मैं किसी पुरातन प्रतिशोध की तरह
जंगलों में सुलग रहा था।
फिर सूखे पत्ते धधक कर जलने लगे
और एक लंबा समय आग के हवाले रहा।
जलते हुए रास्ते से एक बार फिर मैं
प्यार की खोज में निकला
पर तबतक बहुत देर हो चुका था।
तब सपनों के अर्थ बताने वाले लोग
सड़कों पर मजमे लगा रहे थे,
दार्शनिक ताश के पत्ते फेंट रहे थे,
वैज्ञानिक सिर्फ अनिश्चितता के बारे में
अनुमान लगा रहे थे
और महाविनाश को लेकर
साइन्स फिक्शन लिख रहे थे,
मार्क्सवाद के प्रोफ़ेसर पंचांग बाँच रहे थे
और कविगण उत्तर-सत्य का आख्यान रच रहे थे
या देवकन्याओं के बारे में
अलौकिक वासनामय कविताएँ लिख रहे थे
और सोच रहे थे कि क्या अमर प्रेमी भी
कभी पा सके थे एक वास्तविक स्त्री का दिल ?
अगर कहीं थोड़ा-बहुत प्यार
शायद बचा रह गया था
तो बेहद मामूली,
नामालूम चेहरों वाले चन्द
आम नागरिकों के पास
पर उसे भी खोज पाना
इतना आसान नहीं था !
(3)
कुछ ने
कुछ प्रेम किये एकतरफा,
कुछ को अधूरा छोड़ दिया,
कुछ से पीछे खींच लिये पैर
और उनके कुछ प्रेम बस
एक दीर्घ प्रतीक्षा बनकर रह गए I
फिर भी उन्होंने
प्रेम की बेहतरीन कविताएँ लिखीं,
इस दुनिया में
प्रेम की हिफाज़त और बहाली के लिए
शानदार लड़ाइयाँ लड़ीं
और ज़िन्दगी से छककर प्यार किया I
जिन्होंने ज़िन्दगी की
ज़रूरी लड़ाइयों से मुँह चुराया,
उनकी ओर पीठ कर दिया,
या उन्हें अधूरा छोड़ दिया,
वे प्रेम में पड़कर भी
कभी न कर सके प्रेम,
कभी न पा सके प्रेम,
अपरिचित रहे हमेशा
उस सौन्दर्यानुभूति से,
जिए एक भोगी प्रेत की तरह,
मरे एक भगोड़े सैनिक के अहसास के साथ
जिसपर गर्व नहीं था
किसी अपने को भी।
(4)
जिन्हें हम प्यार करना चाहते थे
कहां गये वे तमाम सुंदर, सच्चे
और शक्तिशाली ….
जिन्हें प्यार करने का सपना देखते हुए
हम सयाने हुए।
बौनेपन के इस प्रदेश में
वीरता और त्याग को
बेवकूफी या कोई काल्पनिक चीज़
समझा जाता है।
तमाम सुंदर-सच्चे-शक्तिशाली-गर्वीले लोग
हमारी उम्र से पहले पैदा हुए
या फिर जब पैदा होंगे
तब शायद हम बुढ़ापे
की
उम्र को पहुंच रहे होंगे।
छिटकती नीली चिंगारियों को
उस समय के शानदार, सच्चे, युवा लोगों को
जलते हुए हृदय वाले
सुंदर, शक्तिशाली दांको जैसे लोगों के
बारे में जो हमारे समय से
पहले पैदा हुए थे।
(आभार कुछ अंश बुढ़िया इजरगिल)
(लेखक के अपने विचार है।)
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