लोकतंत्र, सरकार और मीडिया
लेखक: अहमद अली
क्या लोकतंत्र खतरे में है ? या इसके खात्मे की साजिश जारी है । कौन साजिश का सुत्रधार है ? और इन सबमें हमारा मीडिया कहाँ खडा़ है।आईये आज इसी पर नजर सानी की जाय। आजा़दी के बाद हर काल में यह देखा गया कि शासक वर्ग अपने वर्गीय स्वार्थ हेतु ऐसे ऐसे फैसले लेते रहे हैं जिससे देश के लोकतंत्र की कीलें ढीली होती रही है। हाँ, आज के परिपेक्ष में यह कहना भी जल्दीबाजी नहीं होगी कि 2014 के बाद केन्द्र सरकार ने ताबर-तोर ऐसे फैसले जनता कर थोपती गयी कि आज लोकतंत्र की जडे़ ही केवल कमजोर नहीं हुई बल्कि यह एक माखौल बन कर रह गया है। कहना न होगा कि केन्द्र में बैठी हुई सरकार को जिस दर्शन से मार्गदर्शन मिलता है, वहाँ लोकतंत्र कोई मायने नहीं रखता। फिहरिस्त लम्बा है। सबका जिक्र करना इस छोटे से लेख में असम्भव है। कुछ मोटे- मोटे बिन्दुओं को तो गिन ही सकते है। काश्मीर से 370 का खात्मा, सी.ए.ए., एन.आर.सी., एन.पी.आर. इसी में नोटबन्दी और जीएसटी को भी समेट लिजिये फिर वर्तमान में विपक्ष की आवाज दबा कर बिना मत विभाजन के संसद में किसान बिल को पास करा लेना आदि आदि। इनके अलावा और भी कई मुद्दे हैं, जिनको आप स्वयं देख रहे होगें। विरोध में आवज उठायेगे तो देश द्रोह में बन्द कर दिये जायेंगे। वो जमाना गया जब कहा जाता था कि सरकार से सवाल करना देश की जमहुरियत के लिये सेहतबख्श होता है। इस सारे प्रकरण में मीडिया की भूमिका पर अगर नजर डालते हैं तो उसकी भूमिका ठीक वैसी ही है जैसे राजा के दरबार में उसके हर फैसले पर जय जयकार करने वाले दरबारी हुआ करते थे। उन्हें यह भय घेरे रहता था कि जयकारी में थोडी़ सी भी कोताही उनके लिये मुसीबत खडा़ कर सकती है।हाँ कुछ, पर कुछ ही मीडिया या सोशल मीडिया पर चलने वाले डीजीटल चैनल अपवाद जरुर हैं जो धमकी, गाली और फर्जी मुकदमों का सामना करते हुए सत्य, तथ्य और तर्क के साथ खडे़ है। कहा जाता है कि यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। लेकिन यह चौथा स्तंभ आज सत्ता की आरती उतारने के साथ ही उसकी शान में कसीदा गढ़ने में पूरी तरह व्यस्त है।
अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कहा था कि ऐसा तंत्र जो लोक यानी जनता के लिये हो उसे ही लोकतंत्र कहते है। अर्थात् इसमें जनता की पूरी भागीदारी आवश्यक है। यहीं पर मीडिया की भूमिका निर्धारित होती है। यानी मीडिया को जनता और सरकार के बीच एक कडी़ का काम करना चाहिये और जनता के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी होना चाहिये। ज़रा दृष्टि डालिये तो, क्या आज का संचार माध्यम अपनी इस जिम्मेवारी को निभा रहा है ? आज इनका काम विपक्ष को लतारना,अपनी आमदनी (टीआरपी) बढा़ने के लिये मर्यादाओं की सारी सीमाओं को लांघ कर
सरकार के चरण चुम्बन करना, सत्ता पक्ष की नाकामियों पर पर्दा डालने के लिये सुनियोजित ढ़ंग से अनर्गल कार्यक्रम चलाते रहना ताकि लोगों का ध्यान बंटा रहे, हर मुद्दे पर सत्ता के पक्ष में खडा़ रहने भर रह गया है। कोरोना काल के शुरुआती दौर में जमातियों के बहाने जिस बेशर्मी से झूठा प्रोपगंडा कर देश में एक समुदाय विशेष के प्रति साम्प्रदायिक नफरत का विषाक्त वातावरण तैयार किया गया, उसका मिसान मिलना मुश्किल है, जिसकी आलोचना बाम्बे उच्च न्यायालय ने भी किया। अभी दो महीने से इनके ऐजेंडा में केवल सुशांत प्रकरण ही है। कोरोना पर ये सरकार से सवाल नहीं पूछ सकते, बेरोजगारी, महगाई, भ्रष्टाचार, औधे मुँह गिरा GDP सब इनके स्क्रिन ये गायब है।यहाँ तक कि प्रिंट मीडिया भी इनके ही नक्शे कदम पर गामजन हैं।
मीडिया के इस बदरंग एंव बेलगाम आचरण बनाने में सरकार की पूरी सहभागिता और सहयोग है। यु.पी.एस.सी. जिहाद नाम से कार्यक्रम चलाने वाले सुदर्शन टी वी के पक्ष में सरकार का खडा़ रहना और डीजिटल मीडिया को नियंत्रित करने पर जोर देना, सरकार की फासीवादी आचरण को ही उजागर करता है। एक टी.वी. ऐंकर, जो किसी भी ऐंगल से पत्रकार नहीं लगता उसको बढा़वा देना क्या गैर जनतांत्रिक- गैर सामाजिक संस्कृति को बढा़वा देना नहीं है ? तो आज जनता के जिम्मे है कि वो अपने तंत्र यानी जनतंत्र को मीडिया और सत्तानशीनो के चंगुल से छुरा लें अन्यथा देश का भविष्य बजबजाती कुरेदान के हवाले कर दी जायेगी। आने वाली पीढि़यों के कोपभाजन से बचने के लिये क्या यह जरुरी नहीं है। जरा सोंचिये।
(लेखक के अपने विचार है।)
cpmahamadali@gmail.com
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