पत्रकारिता: पेशा और कर्त्तव्य
लेखक:- अहमद अली
महान स्वतन्त्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की दो बातों, जिनको उन्होनें अपनी पत्रकारिता के संदर्भ कहा था, के साथ अपनी बात शुरु करना चाहता हूँ, ” हम न्याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परन्तु अन्याय में दोनों में से किसी का भी नहीं।हमारी यह हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विविध जातियों, संप्रदायों और वर्णों में परस्पर मेल-मिलाप बढ़े।”
” जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें। जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाए। ”
गणेश शंकर विद्यार्थी का उपरोक्त उदगार पत्रकारिता के वर्तमान परिवेश में दिवा स्वप्न लगता है। क्योंकि कुछ गिनती के पत्रकारों को छोड़कर बाकी़ पत्रकार, पत्रकारिता को सिर्फ वाणिज्यिक पेशा बना बैठे हैं। शायद उन्हें अहसास नहीं है कि यह पेशा के साथ ही एक कर्तव्य भी है जो उन्हें लोकतंत्र की प्रहरी के रुप में निभानी होती है। अर्थात् आपकी लेखनी, सोंच या वक्तव्य लोकतंत्र के मुहाफिज के रुप में होनी चाहिये। दुर्भाग्य से, आज आँखें तरस जाती हैं वो देखने को, पर कहीं दिखता नहीं है।
कुछ अपवादों को छोड़कर आज सत्ता की चाटुकारिता और पत्रकारिता एक ही सिक्के के दो पहलू बनकर रह गये हैं। पिछले दिनों कोरोना के शुरुआती दिनों में हम सबने देखा कि किस प्रकार सभी चैनलों का एक ही ऐजेंडा रह गया था और वो था एक धर्म विशेष को निशाने पर लेना, उसके प्रति नफरती माहौल तैयार करना और वायरस का सारा दोष उसी के मथ्थे मढ़ देना। यह भी स्वीकार करनी चाहिये कि अपना सम्मेलन आयोजित कर जमातियों ने भी गलती की थी। लेकिन उस महामारी के दौरान अपनी नाकामियों से ध्यान भटकाने के प्रयास में, जैसा कि बाम्बे हाई कोर्ट ने बली का बकरा तलाशने वाली टिप्पणी की थी, सरकार थी। उसे जमाती मिल भी गये, और कोरोना के जनक के रुप में उन्हीं के बहाने पूरे मुस्लिम कौम की पहचान बनाई जाने लगी। कई स्थानों पर अप्रिय घटनाएँ भी घटी। मिडिया द्वारा इतना दुष्प्रचार किया गया कि समूचा मुस्लिम साम्प्रदाय दहशत में आ गया था। हालाँकि जमातियों पर लगाये गये सभी आरोप आज विभिन्न न्यायालयों द्वारा खारिज हो चुके हैं पर माहौल जो विषाक्त बनाये गये, उसका असर आज भी बरकरार है।लोकतंत्र की मजबूती का पहला शर्त है सभी कौम की चट्टानी एकता। क्या ये चौथा स्तंभ इस कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है ? सोंचिये ज़रा।
जनतंत्र की जड़ की मजबूति के लिये देश में ऐसा मिडिया वर्ग होना चाहिये जो सरकार की कमजोरियों पर उँगली उठाये, उसे सचेत करे, प्रश्न पूछने के साथ ही जनता के समक्ष सत्य भी उजागर करे। आज ठीक इसके विपरित पाया यह जा रहा है कि हमारा मिडिया विपक्ष से ही सवाल पूछने में मशगूल है तथा सत्ता की कमियों एवं असफलताओं पर पर्दा डालना अपना कर्तव्य मान बैठा है। हर दौर में सत्ता पक्ष यही चाहता है कि मिडिया उसका पक्षकार बन कर रहे ताकि उसकी नाकामियाँ छूपी रहे।वर्तमान में सर से पानी उपर बह रहा है क्योंकि कुछ अपवद के बावजूद सभी पत्रकार उसी दर्शन के पोषक हैं जिसका पोषक सरकार स्वयं है। अतः आँख बन्द करके पूरी तरह चिपके हुए हैं। चन्द पत्रकार और युट्युब चैनल वाले जो अपने फर्ज निभाने का प्रयास करते हैं, उन्हें सरकार द्वारा बडे़ पैमाने पर प्रताड़ित और हतोस्साहित किया जा रहा है। माँ बहन की गालियाँ सुनने के साथ ही हत्या तक की धमकियों का सामना भी करते हैं। आज दर्जनों पत्रकार सच लिखने और बोलने के चलते जेलों में बन्द हैं। उनकी प्रताड़ना के विरुद्ध क्या मिडिया द्वारा कभी भी सामुहिक आवाज़ उठाई गयी है ? कुछ डरे हुए हैं, कुछ पैसा के लोभ में चिपके हैं तो कई नौकरी बचाने की फिक्र में डूबे हुए हैं। बेशक कुछ नीडर भी हैं जो धन्यवाद के हकदार भी हैं तो उनकी हौसला अफजाई अवश्य ही की जानी चाहिये।
कहना न होगा कि वर्तमान मिडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रुप में अपनी पहचान गंवा बैठे हैं। क्या आप सहमत हैं ! कि जमहूरियत के जडो़ की मजबूती और अपनी पुनः पहचान वापसी हेतु नैतिक मुल्यों की ओर लौटना होगा। क्या पत्रकार बन्धु, पत्रकारिता को अपने पेशे के साथ एक बहुमुल्य कर्त्तव्य भी मानेंगे ? और क्या आज के पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से कुछ सीखने के लिये तैयार हैं ?”
(लेखक के अपने विचार है।)
cpmahamadali@gmail.com
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