क्या वर्तमान किसान आन्दोलन राष्ट्र विरोधी है?
लेखक: अहमद अली
आश्चर्य तो तब होता, जब किसान आन्दोलनकारियों को राष्ट्र विरोधी नहीं कहा जाता। क्योंकि 2014 से यही होता आया है, जब कोई भी संगठन या व्यक्ति केन्द्र की जनविरोधी नीतियों या उसके फैसले के विरुद्ध मुँह खोला, उसे नक्सली, आतंकवादी, राष्ट्रविरोधी, पाकिस्तान समर्थक आदि से नामांकित करने की मुहिम गति पकड़ लेती है। दलित-आदिवासी विरोध करें तो नक्सली, मुस्लिम विरोध करें तो पाकिस्तान समर्थक या आतंकवादी, बुद्धिजीवी आपत्ति करें तो अर्बन नक्सल नौजवान सड़कों पर आयें तो उग्रवादी। अब किसान आन्दोलन पर उतरे हैं, चूंकि इसमें पंजाब के किसान बहुतायत हैं तो उनपर खालिस्तान समर्थक ही फिट बैठता है। फिर क्या खट्टर साहब को तो खालिस्तानी दिखाई भी देने लगे। बिहारी मोदी भला चुप कैसे रह सकते थे ! उन्हें इस आन्दोलन में विदेशी फंड नजर आ गया। पूरा देश अब जान गया है इनके तकिया कलाम को। अतः उनका यह तोता रटंत अपने आप खारिज भी हो गया और हो भी रहा है।
आईटी सेल और गोदी मीडिया फिर अपने अभियान में मुस्तैद हैं। आई टी सेल को थोड़ी देर के लिये बाद भी कर दें, क्योंकि ये तो भाजपा के पेड़ आज्ञाकारी हैं। चिन्ता होना स्वभाविक है मीडिया पर, जिन्होंने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को पुनः रौंदने में जुटे हुए हैं, कि सरकार का यह कानून सत्य और परख के सर्वोच्च शिखर पर है और परम राष्ट्रवाद से लबालब भी। इसके विरुद्ध लेकिन वेकिन या कोई भी मुखालेफत देश विरोध के ही समान है। थोड़ी देर के लिये यह मान भी लिया जाय कि उन का कथन सही है, तो एक सवाल यहाँ पैदा होता है कि क्या उनका यह राष्ट्रवाद, लोकतंत्र से परे है ? और क्या उनके कथित राष्ट्रवाद में लोकतंत्र का कहीं भी समावेश है ? ये सुखद है कि इनका विरोध और बहिष्कार वर्तमान किसान आन्दोलन ने शुरु कर दिया है।
अब मैं सीधे आता हूँ तीन किसान कानून पर। सदन में बिना विपक्षियों की राय जाने, बिना किसान नेताओं से मशविरा किये अध्यादेश लाना, अपने प्रचंड बहुमत का दूर्पयोग कर कानून बना देना, क्या यह लोकतंत्र के मर्यादा के दायरे में आता है ? थोथी दलील कि संसद ने बहुमत से कानून बनाया। पर जिस संसद में विपक्षियों की भावनाओं का निरादर हो, उनकी आवाज को बहुमत के द्वारा चुप कर दी जाय साथ ही बहुमत का तान्डव हो, और कहें कि तरीका जनतांत्रिक था तो सवाल उठाना जायज़ है कि तानाशाही फिर क्या होती है ! दूसरा पहलू ये कि जनता जब विरोध में लोकतांत्रिक तरीके से सड़कों पर उतरे तो मौजूदा निजाम का उससे निबटने का तरीका भी वैसा हो जैसे किसी देश के दुश्मन या आक्रमणकारी से निबटने का होता है। फिर इसको क्या संज्ञा देगे ?
आखिर सरकार न्युनतम समर्थन मुल्य (MSP) को कानूनी दर्जा देने से क्यों कतरा रही है।मंडीं हो या मंडी के बाहर भी, हर स्तर पर MSP लागू करने से क्यों आनाकानी है उनकी ? यहीं पर सरकार की मंशा उजागर हो जाता है कि मोदी सरकार किसानों के पैदवार को भी भविष्य में नीजिकरण के गोदामों में बन्द कर देना चाह रही है। जैसे दूरसंचार, बीमा, रेलवे, विमानन आदि का हष्र किया गया है। वही कुछ देश के किसानों के साथ भी होगा और अपने खून पसीने की कमाई को औने-पौने दामों में बिक्री करने पर उन्हें विवश होना होगा।
पहले तो सरकार ने अपनी पूरी अमानवीय प्रयासों को झोंक दिया किसानों को दिल्ली आने से रोकने में। इसमें जब सफलता नहीं मिली तो आन्दोलन में फूट डालने तथा बदनाम करने की अन्य हथकंडे भी आजमा रही है ताकि कार्रवाई आसान हो। अभी तक कहीं भी किसानों के प्रति सरकार द्वारा सहानुभूति नजर नहीं आती। नजर आता है तो सिर्फ कुचक्र और साजिश। किसान हार थक कर वासप लौट जांय यही फिराक है उनकी। कुछ गलतफहमी तो दूर हो गयी है बचा खुचा भी खत्म हो जायेगा।
सरकारी महकमें की ये आवाज भी कितना हास्यास्पद है कि किसान बहकावे में हैं। यह कहना एक तरफ आन्दोलन का अपमान तो हैं ही, दूसरी तरफ जोड़ पकड़ता और धीरे-धीरे देश व्यापी होता आन्दोलन से उनका हताशा भी झलक रही है। मैं इस बात से असहमत हूँ कि सरकार घमंड में है, बल्कि यह सत्य है, कि ये भारत में आर. एस. एस. के ऐजेंडे को लागू करने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। कौन जाने, फिर यह प्रचंड बहुमत वाला मौका़ भविष्य में मिले कि नहीं ! यही “सोंच”उनकी बेचैनी बढा़ रही है। अनर्गल और बेतूका बयानबाजी तो उनका पूराना शगल है।
(लेखक के अपने विचार है।)
cpmahamadali@gmail.com
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