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एक स्मरण सफदर हाशमी की

एक स्मरण सफदर हाशमी की

लेखक: अहमद अली
जब भी एक जनवरी आता है, 1985 की वो सुबह मेरे दिमाग में अचानक ताजा हो जाती है, जब कोलकत्ता में मेरी पहली और आखिरी मुलाकात सफदर हाशमी से हुई थी।माकपा ने अपने पार्टी काँग्रेस में प्रत्येक राज्य से सांस्कृतिक टीमों को आमंत्रित किया  था।मैं बिहार के टीम में शामिल था।दिल्ली से जन नाट्य मंच , सफदर के नेतृत्व में भाग ले रहा था।हम सभी एक होटल में ठहराये गये थे।सवेरे का समय था।चाय के बाद मैं होटल के कैंपस में टहल रहा था कि एक उत्साहित नौजवान से मुलाकात हो गयी।हम दोनों में परिचय का सिलसिला चला ।उसने अपना नाम सहित अपने मंच ( जन नाट्य मंच ) के बारे में विस्तारपूर्वक जिक्र किया ।मुझे याद है उसके जिदपूर्ण आग्रह पर भोजपूरी में मैंने एक गीत की कुछ पंक्तियाँ गाकर उसे सुनाया था।प्रभावित हो अपने कार्यक्रम में बुलाने का वादा भी कर डाला उसने।फिर आया 1989 का वो मनहूस दिन जब गा़जि़याबाद ( यु पी ) के झंडापुर में ” हल्ला बोल ” नुक्कड़ नाटक के मंचन के दौरान उसपर जानलेवा हमला हुआ। दो जनवरी को सर के गम्भीर जख्म ने उसको मौत के आगोश में सुला दिया।
गा़जियाबाद में उस समय नगरपालिका का चुनाव प्रचार चल रहा था।झंडापुर में, माकपा उम्मीदवार रामानन्द झा के समर्थन में चुनाव प्रचार के तहत ही हल्लाबोल  का प्रदर्शन आयोजित था।मुकेश शर्मा जो काँग्रेस का उम्मीदवार था,अपने गैंग के साथ आ धमका और हमला कर दिया।भगदर मच गयी।सफदर, दो महिला  कलाकारों को बचाने के क्रम में ही गिर गये। उसी समय एक बडा़ पत्थर गुंडों ने उनके सर पर दे मारा ।जख्म जान लेवा था।सफदर को राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया  गया जहाँ दो जनवरी को उनकी मौत हो गयी।गुंडों  द्वारा घटना स्थल पर गोलियां भी चलाई गयी, जिसमें सी आई टी यु से जुडे़  रामबहादुर नामक एक मजदूर भी शहीद हो गये।घटना का संक्षिप्त विवरण यही है।


उस छोटी सी मुलाकात में सफदर के व्यक्तित्व को जो मैने परखा वो बडा़ ही अद्भूत था।कला के प्रति उनका तहे दिल समर्पण एक गहरी सामाजिक श्रृजनात्क सोच का ही प्रतिफल था।गढ़वाल, काश्मीर , एवं दिल्ली के कई कालेजों में लेक्चरर तथा दिल्ली में पश्चिम बंगाल के प्रेस ईन्फारमेशन आफिसर जैसी नौकरियों को त्याग कर कला के प्रति उनका जीवन अर्पण कोई व्यवसायिक रुझान नहीं था बल्कि  इसकी अपार क्षमता और बदलाव की ताकत पर उनका दृढ़ विश्वास था। इसके माध्यम से समाज के सबसे पिछडे़ , शोषित और उत्पीडि़त वर्ग के भीतर वो प्रतिरोधात्मक जागरुकता पैदा करना चाहते थे।
वो हमेशा इस तथ्य के हिमायत में खडे़ रहते थे कि कला केवल मनोरंजन का साधन न हो बल्कि कला समाज के लिये हो।यह सामाजिक कूरितियों और विषमता , सामंती संस्कृति तथा कौमी एकता के प्रति जागरुकता का एक सशक्त माध्यम है । जंगे आजादी में कलाकारों की  जो बेमिसाल भूमिका थी उससे कौन इन्कार कर सकता है।


सफदर हाशमी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वो लेखक , नाटककार, गीतकार और निर्देशक तो थे ही ,साथ हीं उनके पास गायकी का अच्छा स्वर भी था।देश में फैल रही साम्प्रदायिक विषमता के प्रति पूरी तरह सचेत थे वो।उनका नाटक हत्यारा और अपहरण भाईचारे का इसी ख़तरे की ओर इशारा करने वाले हैं।मजदूरों के शोषण पर आधारित मशीन, महिलाओं की दुर्दशा पर “औरत” और शाषक वर्ग के खोखलापन को दर्शाता हुआ उनका नाटक ” समरथ को नाहीं दोष  गोसाईं” आज भी पूर्णतया सामयिक हैं।इनके अलावा विभिन्न विषयों पर  दर्जनों नुकक्ड़ नाटकों के रचईता थे। बच्चों के लिये उनकी  कई रचनाएँ एंव पुस्तकें , साक्षरता और महिलाओं के उत्पीड़न  पर गीत आज भी लोकप्रिय हैं।
सफदर हाशमी हमेशा कला को ब आसानी आम जन तक पहुंचाने के लिये ही नुक्कड़ नाटक की अपार उपयोगिता को अपने जीवन काल में एक आन्दोलन का रुप प्रदान किया।सफदर ने लोक सांस्कृतिक कला को एक  पहचान दी।उनके कई लेख हैं जिसमें उन्होनें बताया है कि राज दरबार से निकली हुई सांस्कृतिक कला में गति नहीं होती है क्योंकि वहाँ गतिशीलता नहीं बल्कि अय्याशी होती है।वहीं लोक सांस्कृतिक कला उर्जावान और गतिशील होती है क्यों यह मेहनतकशों के बीच से पैदा होती है।

        काश आज हमारे बीच सफदर होते, क्योंकि उस जमाने से कहीं अधिक उनकी प्रासंगिकता है।फिर भी यदि उनकी राहों का अनुसरण आज के रंगकर्मी करें तो समाज को बहुत कुछ हासिल हो सकता है।हबीब तनवीर के शब्दों में, ” आज के दौर में सफदर हाशमी जैसे युवाओं की सख्त जरुरत है, जो समाज को बांध सके।वैसे किसी भी दौर में सफदर होना आसान नहीं है।
उनके बडे़ भाई इतिहासकार सोहेल हाशमी के शब्द – ” मेरे भाई को मार डाला गया क्योंकि वह जिंदगी भर उन मुल्यों के लिये लडा़, जिनके साथ हम बडे़ हुए हैं।मेरा भाई जिन्दगी भर समतामुलक समाज  बनाने के लिये संघर्ष करता रहा।एक ऐसा समाज जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी हो।वो लड़ता रहा और मारा गया।”
सफदर के जनाजे़ में 15000 से अधिक लोगों का शामिल होना यह बताता है कि वो न केवल आम जनता के दिलो दिमाग में बस गये थे बल्कि उनकी सोंच को भी लोगों ने स्वीकार कर लिया था कि देशवासियों को तानाशाही और फाँसीवाद बिल्कुल ही पसन्द नहीं है। और अन्त में – हर दम दुहरायेगा इतिहास तेरा नाम
ऐ सफदर सौ सलाम

(लेखक के अपने विचार है।)
cpmahamadali@gmail.com

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