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संत रविदास: हर काल का प्रासंगिक युग पुरुष

संत रविदास: हर काल का प्रासंगिक युग पुरुष

लेखक:- अहमद अली
संत रविदास 15 वीं शताब्दी के उन महान संतों में एक थे जिन्होंने न केवल भक्ति भाव को ही प्रश्रय दिया बल्कि समाज की कूरितियों , अंधविश्वास , त्रासदी ,के साथ ही ब्राह्मणवादी शोषण के विरुद्ध भी मुखर आवाज उठाई।उन्होंने अपनी कविता कौशल के माध्यम से समाज सुधार पर न केवल कलम चलाई बल्कि इस दिशा में अपनी जान जोखिम में डाल कर अद्भूत कार्य भी किये।
संत शिरोमणि रविदास जी का जन्म काशी (अब बनारस) में सन 1450 में हुआ था।पिता श्री संतोक दास और माता श्रीमती कालसा देवी  के लार प्यार में पल कर बडे़ हुए और पिता के  व्यवसाय ,” जूता सीना” को ही अपनी जीवीका बनाया।होश सम्भालने के साथ ही वो अध्यात्म के शरण में चले गये तथा संत स्वामी रामानन्द के शिष्य हो गये।संत कबीर उनके गुरु भाई थे।गुरु रविदास के जीवन के दो पहलू थे।एक अध्यात्म की सेवा और दूसरा सामाजिक बूराईयों के विरुद्ध संघर्ष ।मैं यहाँ उनके जीवन के दूसरे पहलू को ही सूत्रबद्द करना चाहता हूँ , जो आज भी पूर्णतया सामयिक और प्रासंगिक हैं।
सबसे बडी़ बात जो नोट करने लायक है वो यह कि उन्होंने न केवल कर्म को प्रधानता दी बल्कि कर्म को धर्म की संज्ञा भी दिया।इसको स्वयं उन्होने अपने आचरण में भी उतारा।अर्थात भिक्षाटन को जीने का साधन न बना कर उन्होंने जूता सीने और तैयार करने को जिन्दगी का जरीया बनाया था।कबीर के साथ भी यही पाया जाता है।गुरु जी यहीं नही रुक जाते हैं, उनकी यह भी शिक्षा  हैं कि कर्म के साथ फल की आश भी करनी चाहिये।
” करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास “।।
यह कहते हुए रविदास ने मेहनतकशों को कर्त्तव्यनिष्ठा की शिक्षा देने के साथ ही मेहनताना प्राप्त करने के प्रति सचेत रहने को प्रेरित हैं। वो यह नहीं कहते कि कर्म किये जा फल भगवान के हाथ में है।रविदास जी बहुत ही विनम्र भाव से इस ओर भी इशारा करते हुए पाये जाते हैं कि श्रमिकों को  उचित पराश्रमिक मिले, इस दिशा में जागरुकता जरुरी है। ऐसी शिक्षा कार्ल मार्क्स के दर्शन में भी पाया जाता है।
गुरु रविदास दयालु और सरल स्वभाव के धनी थे।विनम्रता और सहिष्णुता के जीते जागते प्रतिमुर्ति थे वो। कहा जाता है कि विपन्न व्यक्ति का पैर जूता से खाली देख उनका हृदय पसीज जाता था। लगे हाथ जूता बनाकर मुफ्त में उसे दे डालते थे। यह करते हुए उन्हें शान्ति मिलती थी।यही बात उनके माता – पिता को नागवार गुजरता था।एक तो उनके द्वारा गलत समाजिक परम्पराओं का विरोध करने से बडी़ संख्या में दुश्मन पैदा हो गये थे , जो उनके माता पिता नहीं चाहते होंगे। दूसरा मुफ्त दान।खिन्न हो कर पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया।अलग कुटिया बनाकर कर उन्हें रहना पडा़।लाख विपत्तियों के बावजूद भी उनकी दरियादीली में लेश मात्र भी कमी नहीं आई और ना ही उनका सामाज – सुधार कार्य थोरा भी रुका उनका अध्यात्मिक और सामाजिक अभियान बदस्तूर जारी था।आज नवउदारवादी काल में ऐसे गुणों का सर्वथा अभाव है।शासक वर्ग के ओर से भी आज असहिष्णुता का  क्रुरतम रुप हमारे सामने उपस्थित होते रहता है।किसान आन्दोलन इसका जीता जागता उदाहरण है।
रविदास जाति व्यवस्था के प्रबाल विरोधी थे। समाज में फैली उँच नीच, छुआ छूत एवं सामंती सोंच उन्हें हमेशा आहत किये रहता था। कहते हैं ……………..
रविदास जन्म के करनै होत न कोऊ नीच।
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की नीच।।


अर्थात मनुष्य जन्म के कारण ही नीच नहीं होता बल्कि उसे  कर्म के अनुसार  ऊँच या नीच श्रेणी में रखा जाना चाहिये।यहीं पर वो पुनर्जन्म को भी नकार देते हैं , जिसमें ऊँच या नीच को पहले जन्म के कामों से जोडा़ जाता है।वर्षों पहले की वाणी आज कितना प्रासंगिक है इससे कौन इन्कार कर सकता है ? भीमराव अम्बेडकर से लेकर हजारों  लोगों को जाति की वजह से आज भी अपमानित होना पड़ता है चाहे वो कितने बडे़ विद्वान, या ऊँचे ओहदार ही क्यों न हों।
रविदास के मन में शिक्षित और ज्ञानी के प्रति अपार आदर था , वो खुला आह्वान करते हैं …………..
ब्राह्मण मत पुजिए जो होवे गुण हीन ।
पुजिये चरण चंडाल के जो होवे प्रवीन।।
यह तुलसी दास के उस कथन के बिल्कुल विपरित है जिसमें उनका यह कथन कि .
पूजहि विप्र सकल गुण हीना।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।।
रविदास का उक्त कथन ब्रह्मणवाद पर करारा चोट भी है तथा ज्ञान को प्रतिष्ठा भी।
गुरु जी कौमी एकता के प्रबल समर्थक भी थे।वो अपने अनुयायियों को सदा ज्ञान देते कि हम सभी चूंकि इश्वर के संतान हैं अतः हम भाईयों में फसाद क्यों ? आज उनका यह कथन उन तमाम नागरिकों का हौसला अफ़जाई करता है
जो हर साम्प्रदाय और धर्म के अनुयायियों की एकता के लिये जूझ रहे हें।
अन्त में मैं यही कहूंगा कि कुलभूषण रविदास की समुद्र रुपी जिन्दगी की कुछ बुंदे ही हम यहाँ इकट्ठा कर पाये हैं।समग्रता के लिये शायद हजार पन्नों की आवश्यकता पडे़गी, क्योंकि वैसे युग पुरुष का बखान करना आसान नहीं होता।कभी कभी अनादर हो जाने का जोखिम भी होता है।लेकिन उनके व्यक्तित्व का अनुसरण यदि थोरा भी हम कर पाये तो यह समाज के लिये ही नहीं अपने आप के लिये भी एक उम्दा और सार्थक कदम होगा।
चलते चलते एक साजिश के प्रति सचेत भी कर देना चाहता हूँ कि संत शिरोमणि रविदास ऐसे चोटी के महापुरुष , भविष्य द्रष्टा और समाजिक योद्धाओं को एक चमत्कारी पुरुष के रुप में प्रचलित कर उनकी जीवनी में कई झूठे आडम्बरयुक्त कहानियाँ गढ़ दी जाती हैं , ताकि लोग उनकी केवल पूजा करें, उनके संघर्षों की ओर ध्यान न दें।रविदास के साथ भी कई जगह यह कुचक्र दृष्टिगोचर होता है।
अतः सचेत रहकर ,उनके बताए रास्तों पर चल कर ही हम समाज का कुछ भला कर सकते हैं।

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