राष्ट्रनायक न्यूज। राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस हिंदू नव वर्ष चैत्र मास की प्रतिपदा के दिन मनाया जाता हैे इस दिन से चैत्र नवरात्रि की शुरूआत होती है। महाराष्ट्र में इस दिन को गुड़ी पड़वा कहा जाता है और दक्षिण भारत में इसे उगादि कहा जाता है। विक्रम संवत को नव संवत्सर भी कहा जाता है। संवत्सर 5 प्रकार का होता है जिसमें सौर, चंद्र, नक्षत्र, सावन और अधिमास आते हैं। हालांकि कई विद्वानों का मत है कि भारत में विक्रमी संवत से भी पहले लगभग 700 ई.पू. हिंदुओं का प्राचीन सप्तर्षि संवत अस्तित्व में आ चुका था। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन सूर्योदय के साथ सृष्टि का प्रारंभ परमात्मा ने किया था। अर्थात् इस दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी तब से यह गणना चली आ रही है।
यह नववर्ष किसी जाति, वर्ग, देश, संप्रदाय का नहीं है अपितु यह मानव मात्र का नववर्ष है। यह पर्व विशुद्ध रूप से भौगोलिक पर्व है क्योंकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष वनस्पति फूल पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। मनुष्य के शरीर में नया रक्त बनता है। हर जगह परिवर्तन एवं नयापन दिखाई पडता है। रवि की नई फसल घर में आने से कृषक के साथ संपूर्ण समाज प्रसन्नचित होता है। वैश्य व्यापारी वर्ग का भी इकोनॉमिक दृष्टि से मार्च महीना इण्डिंग (समापन) माना जाता है। इससे यह पता चलता है कि जनवरी साल का पहला महीना नहीं है पहला महीना तो चैत्र है जो लगभग मार्च-अप्रैल में पड़ता है। 1 जनवरी में नया जैसा कुछ नहीं होता किंतु अभी चैत्र माह में देखिए नई ऋतु, नई फसल, नई पवन, नई खुशबू, नई चेतना, नया रक्त, नई उमंग, नया खाता, नया संवत्सर, नया माह, नया दिन हर जगह नवीनता है। यह नवीनता हमें नई उर्जा प्रदान करती है।
नव वर्ष को शास्त्रीय भाषा में नवसंवत्सर (संवत्सरेष्टि) कहते हैं। इस समय सूर्य मेष राशि से गुजरता है इसलिए इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं। प्राचीन काल में नव-वर्ष को वर्ष के सबसे बड़े उत्सव के रूप में मनाते थे। यह रीत आजकल भी दिखाई देती है। जैसे महाराष्ट्र में गुडी पाडवा के रूप में मनाया जाता है तथा बंगाल में पइला पहला वैशाख और गुजरात आदि अनेक प्रांतों में इसके विभिन्न रूप हैं।
नववर्ष का प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व: आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही परम पिता परमात्मा ने १९६०८५३१२० वर्ष पूर्व यौवनावस्था प्राप्त मानव की प्रथम पीढ़ी को इस पृथ्वी माता के गर्भ से जन्म दिया था। इस कारण यह मानव सृष्टि संवत् है। 1. इसी दिन परमात्मा ने अग्नि वायु आदित्य अंगिरा चार ऋषियों को समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल रूप में संदेश क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में दिया था। इस कारण इस वर्ष को ही वेद संवत् भी कहते हैं। 2. आज के दिन ही मयार्दा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त कर वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई थी। 3. आज ही से कली संवत् तथा भारतीय विक्रम संवत् युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ होता है। 4. आज ही के शुभ दिन विश्व वंद्य अद्वितीय वेद द्रष्टा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार में वेद धर्म के माध्यम से सब के कल्याणार्थ आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी भावना को ऋषि ने आर्य समाज के छठे नियम में अभिव्यक्त करते हुए लिखा- ”संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना”। 5. आज ही के शुभ दिन संसार के समस्त सनातन धर्म अनुयायियों का दैविक बल जगाने के लिए धर्मराज्यम् की स्थापना की गयी थी।
महानुभावों! इन सब कारणों से यह संवत् केवल भारतीय या किसी पंथ विशेष के मानने वालों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व मानवों के लिए है। आइए! हम सार्वभौम संवत् को निम्न प्रकार से उत्साह पूर्वक मनाएं- 1. यह संवत् मानव संवत् है इस कारण हम सब स्वयं को एक परमात्मा की संतान समझकर मानव मात्र से प्रेम करना सीखें। जन्मना ऊंच-नीच की भावना, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, संकीर्णता आदि भेदभाव को पाप मानकर विश्वबंधुत्व एवं प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव जगाएं। अमानवीयता व दानवता का नाश तथा मानवता की रक्षा का व्रत लें। 2. आज वेद संवत् भी प्रारंभ है। इस कारण हम सब अनेक मत पंथों के जाल से निकल कर संपूर्ण भूमंडल पर एक वेद धर्म को अपनाकर प्रभु कार्य के ही पथिक बनें। हम भिन्न-भिन्न समयों पर मानवों से चलाए पंथों के जाल में न फसकर मानव को मानव से दूर न करें। जिस वेद धर्म का लगभग 2 अरब वर्ष से सुराज्य इस भूमंडल पर रहा उस समय (महाभारत से पूर्व तक) संपूर्ण विश्व त्रिविध तापों से मुक्त होकर मानव सुखी, समृद्धि व आनंदित था। किसी मजहब का नाम मात्र तक ना था। इसलिए उस वैदिक युग को वापस लाने हेतु सर्वात्मना समर्पण का व्रत लें। स्मरण रहे धर्म मानव मात्र का एक ही है, वह है वैदिक धर्म। 3. वैदिक धर्म के प्रतिपालक मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम की विजय दिवस पर हम आज उस महापुरुष की स्मृति में उनके आदर्शों को अपनाकर ईश्वर भक्त, आर्य संस्कृति के रक्षक, वेद भक्त, सच्चे वेदज्ञ गुरु भक्त, मित्र व भातृवत्सल, दुष्ट संहारक, वीर, साहसी, आर्य पुरुष व प्राणी मात्र के प्रिय बने। रावण की भोगवादी सभ्यता के पोषक ना बनें। 4. आज राष्ट्रीय संवत् पर महाराज युधिष्ठिर विक्रमादित्य आदि की स्मृति में अपने प्यारे आर्यावर्त भारत देश की एकता अखंडता एवं समृद्धि की रक्षा का व्रत लें। राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार करते हुए देश की संपत्ति की सुरक्षा संरक्षा के व्रति बनें। जर्जरीभूत होते एवं जलते उजड़ते देश में इमानदारी, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव, सत्यनिष्ठा, देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता व वीरता का संचार करें। 5. आज आर्य समाज स्थापना दिवस होने के कारण ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ वेद के आदेशानुसार सच्चे अर्थों में आर्य बनें एवं संसार को आर्य बनाएं न की नामधारी आर्य। आर्य शब्द का अर्थ है- सत्य विज्ञान न्याय से युक्त वैदिक अर्थात् ईश्वरीय मयार्दाओं का पूर्ण पालक, सत्याग्रही, न्यायकारी, दयालु, निश्छल, परोपकारी, मानवतावादी व्यक्ति। इस दिवस पर हम ऐसा ही बनने का व्रत लें तभी सच्चे अर्थों में आर्य (श्रेष्ठ मानव) कहलाने योग्य होंगे। आर्यत्व आत्मा व अंत:करण का विषय है। न कि कथन मात्र का।
आधुनिक सभ्यता की अन्धी दौड़ में समाज का एक वर्ग इस पुण्य दिवस को विस्मृत कर चुका है। आवश्यकता है इस दिन के इतिहास के बारे में जानकारी लेकर प्रेरणा लेने का कार्य करें। भारतीय संस्कृति की पहचान विक्रमी संवत्सर में है, न कि अंग्रेजी नववर्ष से। हमारा स्वाभिमान विक्रमी संवत्सर को मनाने से ही जाग्रत हो सकता है, न कि रात भर झूमकर एक जनवरी की सुबह सो जाने से। इसका सशक्त उदाहरण पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई का यह कथन है, जिसे उन्होंने 1 जनवरी को मिले शुभकामना सन्देश के जवाब में कहा था कि मेरे देश का सम्मान वीर विक्रमी नव संवत्सर से है। 1 जनवरी गुलामी की दास्तान है।
वर्ष प्रतिपदा /भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व: 1. वसन्त ऋतु का आरम्भ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगन्ध से भरी होती है। 2. फसल पकने का प्रारम्भ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। 3. नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। अत: हमारा नव वर्ष कई कारणों को समेटे हुए है। अंग्रेजी नववर्ष न मना कर भारतीय नववर्ष हर्षोउल्लास के साथ मनायें और दूसरों को भी मनाने के लिए प्रेरित करें।
राष्ट्रीय संवत: भारतवर्ष में इस समय देशी-विदेशी मूल के अनेक सम्वतों का प्रचलन है। किन्तु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय सम्वत यदि कोई है तो वह विक्रम सम्वत ही है। आज से 2072 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम सम्वत का भी आरम्भ हुआ था।
प्राचीनकाल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया सम्वत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसन्त ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसन्त ऋतु में आने वाले वासन्तिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर सम्वत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवन्दन करता है।
दरअसल भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धन्वन्तरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।
निष्कर्ष: राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान: पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक सम्वतों को चलाया। किन्तु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी सम्वत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी सम्वत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परन्तु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गुरु नानक, महर्षि दयानन्द आदि महापुरुषों की जयन्तियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी सम्वत के अनुसार नहीं। नामकरण-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या विवाह आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पञ्चांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।
डॉ. धीरेन्द्र कुमार त्रिपाठी
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