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चिराग को छोड़ पारस को साधना भाजपा के किस सियासी गणित का हिस्सा है?

नई दिल्ली, (एजेंसी)। रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी में बगावत, सियासी उठापटक तथा चाचा-भतीजे की लड़ाई के बीच दोनों गुट एक-दूसरे के खिलाफ जमकर आक्रमक है। मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल के साथ ही चाचा पशुपति पारस वहां अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे जबकि खुद को प्रधानमंत्री का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान खाली हाथ रहे गए। इसके बाद चिराग पासवान के राजनीतिक भविष्य को लेकर अलग-अलग तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर चिराग पासवान का राजनीतिक भविष्य सीमित हो गया है? क्या पशुपति पारस को मंत्री बनाकर भाजपा ने चिराग के रास्ते को ब्लॉक कर दिया है? क्या पशुपति पारस को आगे बढ़ाकर भाजपा रामविलास पासवान के वोट बैंक को हासिल कर सकती है? साथ ही साथ यह भी सवाल उठ रहा है कि पशुपति पारस को मंत्री बनाना भाजपा की किस सियासी गणित का हिस्सा है? सबकी नजर इस बात पर टिकी है कि चिराग पासवान का अगला कदम क्या होगा। हालांकि चाचा अब भी यह लगातार कह रहे हैं कि उन्हें चिराग पासवान से कोई दिक्कत नहीं है। वह गलत रास्ते पर चले गए हैं। जबकि चिराग पासवान चाचा पशुपति पारस पर धोखा देने और पीठ में खंजर घोपने का आरोप लगा रहे हैं।

अपने ही पिता की विरासत को बचाने की लड़ाई चिराग फिलहाल हारते हुए दिखाई दे रहे हैं। कोर्ट से भी उन्हें झटका लगा है। ऐसे में चिराग किस बात की उम्मीद करें। चिराग को अब सिर्फ जनता का सहारा है और यही कारण है कि वह पूरे बिहार में आशीर्वाद यात्रा निकाल रहे हैं। चिराग के लिए धक्के की बात तो यह रही कि भाजपा ने उन्हें पूरी तरह से अकेले छोड़ दिया। उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि भाजपा इस परिस्थिति में उनकी मदद करेगी। लेकिन ऐसा होता हुआ दिखाई बिल्कुल भी नहीं दे रहा है। भाजपा आगे की राजनीति पशुपति पारस को ही आगे करके लड़ेगी। चिराग पासवान के आशीर्वाद यात्रा पर नजर डाला जाए तो कहीं ना कहीं इस बात के संकेत साफ तौर पर मिल रहे हैं कि जमीन पर पशुपति पारस से ज्यादा लोग चिराग के साथ है। भले ही सांसद पारस खेमे में चले गए हैं परंतु जनता और कार्यकर्ता चिराग पासवान के साथ दिख रहे हैं। यह चिंता भाजपा और जदयू गठबंधन के लिए सबसे ज्यादा है। यहां तक कि जिस सीट से पशुपति पारस सांसद है वहां भी उनके खिलाफ नाराजगी है और चिराग को समर्थन हासिल हो रहा है।

दूसरी ओर अब यह भी आशंका जताई जा रही है कि केंद्र सरकार में शामिल होने के बाद पशुपति पारस जदयू या फिर भाजपा में विलय पर विचार कर सकते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि पशुपति पारस कभी जनाधार वाले नेता नहीं रहे हैं। वह अपने भाई के सहारे ही चुनाव जीतते रहे हैं। रामविलास पासवान की पार्टी राज्य में 7 से 8 फीसदी वोट पर सीधे प्रभाव रखती है। भाजपा पशुपति पारस को अपने साथ रखने के बाद उस वोट प्रतिशत को साधने की कोशिश करेगी। दूसरी तरफ यह भी है कि अगर एलजेपी का हक पूरी तरह से पारस के पास चला जाता है तो चिराग को अपनी नई पार्टी बनानी होगी। हालांकि यह दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बाद ही होगा। अलग पार्टी बनाकर रामविलास पासवान की विरासत और वोट बैंक को आगे बढ़ाना चिराग के लिए बड़ी चुनौती होगी।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर चिराग को छोड़ चाचा पशुपति पारस को मंत्री बनाने का निर्णय भाजपा ने क्यों लिया? चाचा पारस में भाजपा को ऐसा क्या दिखा? विशेषज्ञ मानते हैं कि भाजपा ने ऐसा निर्णय नीतीश कुमार के दबाव के कारण लिया। नीतीश और चिराग में विधानसभा चुनाव के दौरान कटुता देखने को मिली थी। चिराग लगातार नीतीश कुमार पर हमलावर रहे। उनके उम्मीदवारों के खिलाफ अपनी पार्टी के उम्मीदवार को उतारा। यही कारण रहा कि नीतीश की पार्टी जदयू के प्रदर्शन चुनाव से बुरा रहा। विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि पशुपति को मंत्री बनाकर भाजपा उनके जदयू में विलय की संभावनाओं पर ब्रेक लगाने की कोशिश कर रही है। अगर पशुपति भाजपा में विलय करते हैं तो ऐसे में भगवा पार्टी के पास बिहार में दलित चेहरा हो सकता है। अगर पशुपति पारस को भाजपा मंत्री नहीं बनाती तो हो सकता था वह जदयू में विलय कर लेते और ऐसे में जदयू की सीट संसद में ज्यादा हो जाती। यही कारण है कि पशुपति पारस को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया। भाजपा वर्तमान में नीतीश की भी ताकत को कम करने की कोशिश कर रही है और अपना भविष्य बिहार में देख रही है।